ज्ञान ही दीप है, भक्ति ही मार्ग है, हे भगवान ! तुम्हारी दया से प्रेरणा पाकर इस मार्ग पर चलने लायक बना दो, अज्ञानी भी उस मार्ग से लक्ष्य तक पहुंचेगा हे बालाजी !
भगवान के प्रति आकर्षित होने का मूल कारण है ज्ञान । इससे भक्ति प्राप्त होती है । फलस्वरूप सेवा (कर्म योग) मिलती है । श्री दत्त भगवान ने शंकर ,रामानुज और मध्वाचार्य के रूपों में इसी विषय को संदेश के रूप में प्रस्तुत किया । रुक्मिणी ने श्री कृष्ण के बारें में सुना(ज्ञान) । उससे कृष्ण की ओर आकर्षित हुई(भक्ति)। अत: ब्रह्म ज्ञान या ज्ञानयोग मूल हेतु है। इस प्रकार भगवान के प्रति आकर्षित होकर, उन को पाने की तीव्र इच्छा रखना ही भक्ति है। इस तरह की तीव्र इच्छा से ही रुक्मिणी श्री कृष्ण को प्राप्त कर सकी। फलस्वरूप भक्ति ही भगवान को प्राप्त करने का मूल कारण बनता है।
गीता में कहा गया कि ‘भक्त्त्यात्वनन्यया लभ्य:’ अर्थात् अनन्य भक्ति से ही मैं प्राप्त होता हूँ । श्री शंकराचार्य भी इस पर बल देते हुए कहते हैं कि “मोक्ष साधन सामग्र्यां,भक्तिरेव गरीयसी” “भक्ति: किं न करोत्यहो ” माने भक्ति ही भगवान को प्राप्त करने का अत्युत्तम साधन है। भक्ति द्वारा ही सब कुछ साद सकते हैं। भक्ति से भगवान को प्राप्त कर उनकी सेवा करना ही कर्म योग है। सेवा द्वारा ही भक्ति का निरूपण होता है। रुक्मिणी ने परमात्मा श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के बाद, श्री कृष्णा की पाद सेवा की ।
शबरी, कन्नप्पा जैसे परम भक्त ज्ञानी नहीं हैं। फिर भी अपार भक्ति के कारण ही परमात्मा को प्राप्त किया। अर्थात् पिछले जन्मों में ही उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया। चूंकि भक्ति है तो ज्ञान भी है। जहाँ ज्ञान है वहाँ भक्ति पैदा होती है। सब लोग जानते हैं कि ज्ञान की पराकाष्टा के श्री शंकराचार्य तथा भक्ति की पराकाष्टा के मीरा को भगवान ने सशरीर कैवल्य दिया।
“या न: प्रीतिर्विरूपाक्ष” नामक श्लोक में यह बताया गया कि लौकिक विषयों पर जो प्रेम है,वही प्रेम भगवान पर होगा तो उस प्रेम को भक्ति कहते हैं । अगर यह भक्ति पराकाष्ट स्थिति तक पहुंचती है तो ‘पराभक्ति’ कहलाती है । इस स्थिति में परमात्मा पर संपूर्ण प्रेम होता है । अत: उस पर आलोचना और तर्क को सहन नहीं सकते हैं । भगवान पर अत्यधिक मोह और प्रेम हो जाता है । इस दशा में स्वामी के आग्रह को भी महाप्रसाद के रूप में स्वीकार किया जाता है। यही नवविध भक्तियों का अंतिम सोपान है ‘आत्मनिवेदन’ । मन, वाक् और शरीर तीनों का संयुक्त रूप ही ‘आत्मा’ कहा जाता है। यही त्रिकरण अर्पण है। अर्थात् हर व्यक्ति और हर वस्तु पर जो बंधन रखते हैं, वो बंधन परमात्मा के बंधन के आगे अपने आप खतम हो जाते हैं । ये बंधन सिर्फ स्वामी पर है तो वही ‘कैवल्य’होता है। यह भक्ति की दस अवस्थाओं में एक है। जिसे ‘उन्माद’या ‘आत्मनिवेदन’ कहा जाता है, माने ब्रह्म के लिए पागल होना । इस उन्माद स्थिति में स्वामी के अलावा लौकिक वस्तु, लौकिक व्यक्ति या धर्माधर्म विचक्षणता या नरक जैसे कोई भय नहीं रहता । इसे ही “अवधूतावस्था” कहते हैं। यह अवधूतावस्था गोपिकाओं को प्राप्त है।
ज्ञान योग के लिए सद्ग्रंथ और सत्संग साधन है तो भक्तियोग के लिए भजन, कीर्तन साधन हैं । भक्ति सूत्रधारि श्री नारद महर्षि भजन कीर्तन गाने से सुर और असुर दोनों के पूजनीय तथा सम्माननीय बनगये । क्यों कि भजन कीर्तन से दुष्ट व्यक्ति भी प्रभावित होते हैं । भक्ति के बारे में श्री नारद महर्षि कहते हैं कि वह अनिर्वचनीय है । “जारवच्च ” और “यथा व्रज गोपिकानाम्” सूत्रों में ,भक्ति जार की लोलता (निष्ठा) के समान है और सच्चे भक्तों के रूप में गोपिकाओं को दिखाया । “ तन्मया हि ते ” सूत्र में यह बताया कि भक्त की निष्ठा से भगवान खुश होकर उस पर आरोपित हो जाते हैं तो उसे कैवल्य प्राप्त होता है । सांसारिक बन्धन रूपी छ : पहाड़ पार करके भगवत् बंधन रूपी 7 वे पहाड़ पर स्थित अमृत भक्ति रूपी सरोवर में कम से कम एकबार डुबकी नहीं लगाए तो जीव का जन्म व्यर्थ होता है । ‘एकबार डुबकी लगा दूँ ! हे ! प्राणनाथ’ जैसे रस रम्य कीर्तन के साथ भक्ति गंगा में सिर्फ एकबार डुबकी लगा दो।
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