स्वामी द्वारा दिव्या वाणी
ज्ञान योग के लिए सद्ग्रंथ और सत्संग साधन है तो भक्तियोग के लिए भजन, कीर्तन साधन हैं । भक्ति सूत्रधारि श्री नारद महर्षि भजन कीर्तन गाने से सुर और असुर दोनों के पूजनीय तथा सम्माननीय बनगये । क्यों कि भजन कीर्तन से दुष्ट व्यक्ति भी प्रभावित होते हैं । भक्ति के बारे में श्री नारद महर्षि कहते हैं कि वह अनिर्वचनीय है । “जारवच्च ” और “यथा व्रज गोपिकानाम् ” सूत्रों में,भक्ति जार की लोलता (निष्ठा) के समान है और सच्चे भक्तों के रूप में गोपिकाओं को दिखाया । “ तन्मयाहि ते ” सूत्र में यह बताया कि भक्त की निष्ठा से भगवान खुश होकर उस पर आरोपित हो जाते हैं तो उसे कैवल्य प्राप्त होता है । सांसारिक बन्धन रूपी छ : पहाड़ पार करके भगवत् बंधन रूपी 7 वे पहाड़ पर स्थित अमृत भक्ति रूपी सरोवर में कम से कम एकबार डुबकी नहीं लगाए तो जीव का जन्म व्यर्थ होता है । ‘एकबार डुबकी लगा दूँ ! हे ! प्राणनाथ’ जैसे रस रम्य कीर्तन के साथ भक्ति गंगा में सिर्फ एकबार डुबकी लगा दो ।
42. ॥ पञ्चगेहिनां भिक्षया चरम् ॥
43. ॥ निष्कामकर्म जना द्विविधम्॥
48. ॥ दर्शय चरणं, दत्तात्रेय! ॥
49. ॥ दत्तात्रेया दन्यत् तुच्छम् ॥
50. ॥ तव करुणैव हि सर्वं दत्त ॥
52. ॥ प्रवृत्ति निवृत्ति शाखा द्वयम् ॥
53. ॥ दयामय श्री दत्तात्रेय! ॥
56. ॥ हे दत्त! वैश्वानराग्ने! ॥
57. ॥ ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मणो हि ॥
58. ॥ दत्तात्रेय! कियन्नु मधु ते ॥